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कश्मीर: रियासत से केंद्र शासित प्रदेश तक। राम पुनियानी

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कश्मीर ज्यादातर गलत कारणों से चर्चा में रहा है। राहुल भट और रियाज अहमद की हाल में हुई हत्याओं (2022) ने लगातार जारी उग्रवाद के आगे कश्मीरियों की दुर्दशा की ओर फिर से हमारा ध्यान खींचा है। अनुच्छेद 370 का निरसन और भारतीय सेना की बढ़ती उपस्थिति ने इन मसलों में किसी भी तरह से मदद नहीं की है। नोटबंदी के समय भी यह तर्क दिया गया था कि इससे कश्मीर में उग्रवाद पर अंकुश लगेगा। रणनीतिक रूप से स्थित जम्मू और कश्मीर वह क्षेत्र रहा है, जहां आतंकवादियों द्वारा हिंसा, विशेष रूप से पाकिस्तान में प्रशिक्षित आतंकवादियों द्वारा हिंसा बहुत चिंता का विषय है। इससे न केवल कश्मीरी पंडितों पर, बल्कि कश्मीरी मुसलमानों पर भी अकथनीय दुखों का पहाड़ टूटा है। ऐसा नहीं है कि सिर्फ कश्मीरी पंडितों को घाटी छोड़नी पड़ी, बड़ी संख्या में कश्मीरी मुसलमानों को भी अपना घर और परिवार छोड़ना पड़ा।

 क्या इलाके में बड़ी संख्या में सैन्य की तैनाती से इस मसले में मदद मिल सकती है, यह एक बड़ा सवाल है। मुख्य समस्या लोगों का अलगाव और अधिक स्वायत्तता की आवश्यकता की है, जो कि सत्ताधीन सरकार के एजेंडे में हो, ऐसा दिखाई नहीं देता। ऐसा लगता है कि अटल बिहारी वाजपेयी के कश्मीरियत, इंसानियत और जम्हूरियत के सूत्र को ठंडे बस्ते में डाल दिया गया है।

 विशेष रूप से कश्मीरी पंडितों और सामान्य रूप से सभी कश्मीरियों की पीड़ा को खास कर बातचीत की प्रक्रिया के माध्यम से निष्पक्ष तरीके से संबोधित करने की आवश्यकता है।

 इस दिशा में बहुत कुछ करने की जरूरत है। बहुत कुछ विचार करने की जरूरत है। पिछले कई वर्षों की अवधि में लिखे गये मेरे लेखों के संकलन रूपी यह पुस्तक समस्या की पृष्ठभूमि समझाती है और इसका लक्ष्य उन प्रश्नों को उठाना है, जिन्हें तत्काल आधार पर संबोधित करने की जरूरत है। इस क्षेत्र की मौजूदा स्थिति का संक्षिप्त जायजा लेने का यह एक छोटा सा प्रयास है।

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